क्या रिश्तों में सच्चा प्रेम होता है?

रिश्तों में सच्चा प्रेम


सच्चाप्रेम हो तो पूरी ज़िंदगी कोई अपनी पत्नी या बच्चों की गलतियाँ नहीं देखेगा।प्रेममें कोई कभी भी किसी की गलतियाँ नहीं देखता। ज़रा देखिए लोग कैसे एक दूसरें की गलतियाँ देखते हैं।''आप ऐसे हो।" नहीं, आप ही ऐसे हो।''दुनिया ने रत्ती भर भी प्रेम नहीं देखा है। ये सब मोह और भ्रांति से आकर्षण हैं।

सच्चाप्रेम कभी बढ़ता भी नहीं और घटता भी नहीं। सच्चे प्रेम में कोई शर्त या उम्मीद नहीं होती।

सांसारिक व्यवहार में सिर्फ प्रेम ही बच्चों, परिवारजनों, सहकर्मियों, सभी को जीत सकता है। बाकी सभी तरीक़े व्यर्थ ही साबित होंगे।

अगर आप पेड़ उगाते हैं, तब उसका भी प्यार से पोषण करना पड़ता है। केवल उसे पानी देकर डाँटने से वह नहीं बढ़ेगा। अगर प्यार से करेंगे, प्यार से बातें करेंगे, तब वह आपको बड़े सुंदर फूल देगा। तो ज़रा सोचिए वह मानव को कितना अधिक प्रभावित कर सकता है।

अगर किसीको सर्वोच्च प्रेम स्वरूप बनाना चाहता है, ऐसा प्रेम जो इस दुनिया में किसी ने न पहले देखा, सुना या अनुभव किया है, ऐसे अविश्वसनीय प्रेम के लिए तो प्रेमावतारज्ञानीपुरुष की पूजा करनी चाहिए।


क्या आपके घर में सच्चा प्रेम है?


घरवालों के साथ 'नफा हुआ' कब कहलाता है कि घरवालों को अपने ऊपर प्रेम आए। अपने बिना अच्छा नहीं लगे, कि कब आएँ, कब आएँ ऐसा लगे। लोग शादी करते हैं पर प्रेम नहीं, यह तो मात्र विषय आसक्ति है। प्रेम हो तो चाहे जितना एक दूसरे में विरोधाभास आए फिर भी प्रेम नहीं जाए। जहाँ प्रेम नहीं हो वह आसक्ति कहलाता है। आसक्ति मतलब संडास! प्रेम तो पहले होता था कि पति परदेश गया हो न, वह वापिस न आए तो पूरी ज़िन्दगी उसमें ही चित्त रहता, दूसरा कोई याद ही नहीं आता। आज तो दो साल पति न आए तो दूसरा पति कर ले! इसे प्रेम कैसे कहा जाए? यह तो संडास है, जैसे संडास बदलते हैं, वैसा! जो गलन है, उसे संडास कहते हैं। प्रेम में तो अर्पणता होती है!

प्रेम मतलब लगनी लगे वह। और वह सारे दिन याद आता रहे। शादी दो रूप में परिणमित होती है, किसी समय आबादी में जाती है तो किसी समय बरबादी में जाती है। प्रेम बहुत छलके तो वापिस बैठ जाता है। जो छलकता है, वह आसक्ति है। इसलिए जहाँ छलके, उससे दूर रहना। लगनी तो आंतरिक होनी चाहिए। बाहर का खोखा बिगड़ जाए, सड़ जाए तब भी प्रेम उतना का उतना ही रहे। यह तो हाथ जल गया हो और हम कहें कि, 'जरा धुलवा दो' तो पति कहेगा कि, 'ना, मुझसे नहीं देखा जाता!' अरे, उस दिन तो हाथ सहला रहा था, और आज क्यों ऐसा? यह घृणा कैसे चले? जहाँ प्रेम है वहाँ घृणा नहीं और जहाँ घृणा है वहाँ प्रेम नहीं। संसारी प्रेम भी ऐसा होना चाहिए कि जो एकदम कम न हो जाए और एकदम बढ़ न जाए। नोर्मेलिटी में होना चाहिए। ज्ञानी का प्रेम तो कभी भी कम-ज़्यादा नहीं होता। वह प्रेम तो अलग ही होता है। उसे परमात्म प्रेम कहते हैं।

प्रेम सब जगह होना चाहिए। पूरे घर में प्रेम ही होना चाहिए। जहाँ प्रेम है, वहाँ भूल नहीं निकालता कोई। प्रेम में भूल नहीं दिखती। और यह प्रेम नहीं, इगोइज़म है। मैं पति हूँ वैसा भान है। प्रेम उसका नाम कहलाए कि भूल न लगे। प्रेम में चाहे जितनी भूल हो तो निभा लेता है। आपको समझ में आता है?


क्या रिश्तों में सच्चा प्रेम होता है?



जगत् आसक्ति को प्रेम मानकर उलझता है। स्त्री को पति के साथ काम और पति को स्त्री के साथ काम, ये सब काम से ही खड़ा हुआ है। काम नहीं हो तो अंदर सभी चिल्लाते हैं, हल्ला करते हैं। संसार में एक मिनट भी अपना कोई हुआ ही नहीं है। अपना कोई होता नहीं है। वह तो जब अटके तब पता चले। एक घंटा बेटे को हम डाँटे तब पता चले कि बेटा अपना है या पराया है? दावा दायर करने के लिए भी तैयार हो जाता है। तब बाप भी क्या कहता है? 'मेरी अपनी कमाई है। तुझे एक पाई नहीं दूँगा' कहेगा। तब बेटा कहेगा, 'मैं आपको मार-ठोककर लूँगा।' इसमेंपोतापणुं(मैं हूँ और मेरा है-ऐसा आरोपण/मेरापन) होता होगा? एक ज्ञानी पुरुष ही अपने होते हैं।

बाकी, इसमें प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है। इस संसार में प्रेम मत ढूंढना। किसी जगह पर प्रेम होता नहीं। प्रेम तो ज्ञानी पुरुष के पास होता है। दूसरे सभी जगह तो प्रेम उतर जाता है और फिर लड़ाई-झगड़े होते हैं बाद में। लड़ाई-झगड़े होते हैं या नहीं होते? वह प्रेम नहीं कहलाता। वह आसक्ति है सारी। उसे अपने जगत् के लोग प्रेम कहते हैं। उल्टा ही बोलना वह धंधा! प्रेम का परिणाम, झगड़े नहीं होते। प्रेम उसीका नाम कि किसीका दोष न दिखे।

प्रेम में कभी भी सारी ज़िन्दगी में बेटे का दोष नहीं दिखता, पत्नी का दोष नहीं दिखता, उसका नाम प्रेम कहलाता है। प्रेम में दोष दिखते ही नहीं उसे और यह तो लोगों को कितने दोष दिखते हैं? 'तू ऐसी और तू वैसी!' अरे, प्रेम कहता था न? कहाँ गया प्रेम? मतलब, नहीं है यह प्रेम। जगत् में कहीं प्रेम होता होगा? प्रेम का एक बाल जगत् ने देखा नहीं है। यह तो आसक्ति है।

और जहाँ आसक्ति हो, वहाँ आक्षेप हुए बगैर रहते ही नहीं। वह आसक्ति का स्वभाव है। आसक्ति हो इसलिए आक्षेप हुआ ही करते हैं न कि, 'आप ऐसे हो और आप वैसे हो।' 'आप ऐसे और तू ऐसी' ऐसा नहीं बोलते, नहीं? आपके गाँव में वहाँ नहीं बोलते या बोलते हैं? बोलते हैं! उस आसक्ति के कारण। पर जहाँ प्रेम है, वहाँ दोष ही नहीं दिखते हैं।

संसार में इन झगड़ों के कारण ही आसक्ति होती है। इस संसार में झगड़ा तो आसक्ति का विटामिन है। झगड़ा नहीं हो तब तो वीतराग हुआ जाए।
सुख की खोज

सच्चे प्रेम को कैसे परखे?

RELATED QUESTIONS

1) सच्चा प्रेम जो चढ़े नहीं, घटे नहीं वह! हमारा ज्ञानियों का प्रेम ऐसा होता है, जो कम-ज़्यादा नहीं होता। ऐसा हमारा सच्चा प्रेम पूरे वर्ल्ड पर होता है। और वह प्रेम तो परमात्मा है।
2) व्यवहार में भी बालक, नौकर या कोई भी प्रेम से ही वश हो सकता है, दूसरे सब हथियार बेकार सिद्ध होते है अंत में तो!
3) कभी भी मुँह न बिगाड़े, वैसा प्रेम होना चाहिए। वह प्रेम हमारे पास मिलता है।पति झिड़के तब भी प्रेम कम-ज़्यादा नहीं हो, वैसा प्रेम चाहिए। हीरे के टोप्स लाकर दें, उस घड़ी प्रेम बढ़ जाता है, वह भी आसक्ति। इसलिए यह जगत् आसक्ति से चल रहा है। प्रेम, वह तो ज्ञानी पुरुष से ठेठ भगवान तक होता है, उन लोगों के पास प्रेम का लाइसन्स होता है। वे प्रेम से ही लोगों को सुखी कर देते हैं। वे प्रेम से ही बांधते हैं वापिस, छूट नहीं सकते। वह ठेठ ज्ञानी पुरुष के पास, ठेठ तीर्थंकर तक सभी प्रेमवाले, अलौकिक प्रेम! जिसमें लौकिक नाम मात्र को भी नहीं होता।
4) यह तो लोग बाहर कुछ तकरार हुई कि दोस्ती छोड़ देते हैं। पहले दोस्ती होती है और बहुत प्रेम से रहते हैं तो बाहर भी प्रेम और अंदर भी प्रेम! और फिर जब तकरार हों तब बाहर भी तकरार और अंदर भी तकरार। अंदर तकरार नहीं करनी है। वह समझता नहीं पर अंदर प्रेम रहने देना चाहिए। अंदर सिलक होगी न, तब तक मनुष्यपना नहीं जाएगा। अंदर की सिलक गई यानी मनुष्यपन भी चला जाएगा


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